Friday, 12 October 2012

माँ काली

 



तारे जब छिप गए,
बादल पर बादल छाये ,
केवल है सन्नाटा, अन्धकार व गूँज .
गरजते चक्रवातों में सन्निहित,  
आत्माए कोटिशः उन्मत्तों की ,
मुक्त अभी
जो कारावास से ,  
उखाड़ फेंकती वृक्ष समूल ,
 पथ पर हो भीषण संहार  
सागर भी है युद्ध में शामिल,  
उमड़ाता गिरि  चुम्बित लहरें ,
छूने को श्यामल  आकाश .  
चमक भयावह प्रकाश की
छा जाती हर ओर,  
सहस्त्र सहस्त्र साए
मृत्यु के,-
दुखद और घनश्याम ,-  
फैलाते दुःख  व  रोग ,
मस्ती में झूमें  हो पागल,
आओ माँ ,
आओ !
भय
ही तेरा नाम ,  
मृत्यु है तेरी श्वांस,
हर एक कम्पित पग ,
करता शाश्वत संहार .
तू काल,
तू सर्व नाशिनी !
आओ माँ ,
आओ ! जो सह जाता दारुण  प्रेम ,
करता मृत्यु का आलिंगन ,
नृत्य करे नाश लीला में ,
मिले उसे ही माँ का अंक .


सन्यासी का गीत

song of sannyaasi 




 







जागो स्वर उस गीत के जो जन्मा
दूर कहीं,
सांसारिक मल जिसे छू न सके कभी
गिरी कंदराओं में,
सघन वनों की छाओं में ,
व्याप्त गहन शान्ति को ,विषय वासना,
यश, ऐश्वर्य, कर न सकें भंग ;
उमड़े निर्मल निर्झर जहां
आनंद का जो जन्मे सत्य -ज्ञान से .
गाओ ऊंचे स्वर वही ,सन्यासी निर्भीक ,गाओ
ॐ तत्सत  ॐ !
तोड़ फेंको बेड़ियाँ !बंधन जो बांधे तुम्हे
चाहे स्वर्णिम कनक के ,
या हों भद्दे धातु के ,
प्रेम-घृणा ;शुभ –अशुभ
और अनेकों द्वन्द
जानो बंदी बंदी है ,चाहे चुम्बित या हो पीड़ित ,
नहीं कभी वह मुक्त ,
क्यूंकि बेडी सोने को भी ,
नहीं बंध कमज़ोर ,
तोड़ो फिर उनको सदा, सन्यासी निर्भीक गाओ
ॐ तत्सत ॐ  !
अन्धकार को दो विदा,
मृगतृष्णा का राज्य
क्षणिक चमक दे कर जो भरे विषाद ..विषाद ...
जीवन की यह तृषा है ,अविरत ऐसी प्यास ,
जो घसीटती
जीव को जन्म -मरण ;
फिर मरण -जन्म के घात .
जो अपने को जीत ले, उसके वश संसार ,
जानो यह ..
और न फंसो,
सन्यासी निर्भीक गाओ
 ॐ तत्सत ॐ !
'जो बोया वह काटना 'कहते है और '
कारण वश है
कार्य ' शुभ का शुभ ;अशुभ का अशुभ ;
नहीं कोई
कर सकता अतिक्रमण नियम का इस ,
किन्तु देह धारी सारे
हैं निश्चित ही बद्ध,
पूर्ण सत्य पर परे है
नाम रूप से आत्म,सदा मुक्त ,
बंधन रहित
जानो तुम तो हो वही, सन्यासी निर्भीक गाओ
ॐ तत्सत ॐ !
नहीं जानते सत्य वे जो देखें स्वप्न निरीह
मानें  'स्व' को तात,माँ ,संतति ,वामा,मित्र.
लिंग रहित है आत्मा !कौन तात ?
कौन संतान ?
आत्मा ही सर्वत्र है ,
नहीं और कुछ शेष ;
और वही तो हो तुम्ही,
सन्यासी निर्भीक गाओ 
ॐ तत्सत ॐ !
मात्र एक ही तत्व है -मुक्त -जिज्ञासु -आत्म !
नाम नहीं ; न रूप है
न कोई पहचान ,
उसका स्वप्न प्रकृति है ,
सृष्टि स्वप्न समान
साक्षी सबका आत्मा उससे प्रकृति अभिन्न ,
जानो तुम तो हो वही ,सन्यासी निर्भीक गाओ
ॐ  तत्सत ॐ !
कहाँ खोजते हो भला ?मुक्ति ,
मित्र यह विश्व
दे सकता तुम को नहीं ,
ग्रन्थ और मंदिर में
खोज तुम्हारी व्यर्थ ;
हाथ तुम्हारे ही सदा
मुक्ति की है डोर ,छोड़ो 
रोना और फिर
त्यागो सारे मोह,
सन्यासी निर्भीक गाओ 
ॐ तत्सत ॐ!
कहो -शांति हो हर तरफ !
डरे न मुझ से कोई ,
जितने परितः प्राणी
हैं ..वे जो ऊपर उड़ रहे
या रेंगे जो जीव,
मैं ही तो सब में रमा ..
मोह भरे जीवन सभी ,
यहाँ -वहां के त्यागो
स्वर्ग सभी, पृथ्वी ,
नरक आशाएं और त्रास
तोड़ो सारे पाश ये,
सन्यासी निर्भीक गाओ 
ॐ  तत्सत ॐ!
मत सोचो आगे
देह साथ रहे या न
भोग इस
का पूरा हुआ कर्म बढाते आयु ;
चाहे फूल माला मिले या मिले किसीकी लात ,
देह को ,प्रतिक्रिया से शून्य रह ,दोष प्रशंसा है नहीं
जब प्रशंसक -प्रशंसित और दोषी- दोषित एक .
यह जानो ,हो शांत ,सन्यासी निर्भीक 
गाओ ॐ तत्सत ॐ !
सत्य प्रकट न हो जहाँ ,है मल ,यश , लालच
का कतिशय अस्तित्व, नहीं पुरुष जो नारी को माने
अपनी भोग्या पासकता है पूर्णता .
न वह जो संग्रह करे सामग्री न वह, 
जो क्रोधी है जा सके माया भ्रम से पार
इसी लिये त्यागो इन्हें, सन्यासी निर्भीक गाओ
ॐ  तत्सत ॐ  !
मत अपना घर को कहो ,किस घर के तुम मित्र ?
अम्बर की छत है तुम्हे ,घास तुम्हारी खाट और खाने को ?
जो दे समय !पका -अधपका ,ना गुनो..
न भोजन न पेय ही छू सकते वह तेज
जो जागृत है आत्म में,बहती सरिता की तरह
तुम भी बहते जाओ ..सन्यासी निर्भीक गाओ
 ॐ  तत्सत ॐ !
सत्य जानते कोई ही ,शेष करेंगे द्वेष ..
व्यंग बाण जो साधते तुम पर तेजस्वी! ,ना दो कोई ध्यान .
रहो अग्रसर ,मुक्त ,भ्रमण करो, दो सहयोग
जीते जो अज्ञान वश , माया से आक्रान्त ,बिना विचारे
कष्ट -भय;या खोजे ही आनंद, जाओ
इन दोनों के पार ..सन्यासी निर्भीक गाओ ओह्म तत्सत ओह्म !
ऐसे ही जीते रहो जब तक कर्म हों नाश ..
मुक्त करो आत्म को, जन्म की हो न आस .
न 'मैं 'न 'तू' न प्रभु ,न ही मानव मान ,मैं तो
सब कुछ हो चूका.. मैं तो हूँ.. आनंद
जानो तुम तो हो वही, 
सन्यासी निर्भीक, गाओ ॐ  तत्सत ॐ  !


श्यामा को थिरकने दो


let shyama dance


The roll of thunder, the crashing of clouds,
War of elements spreading earth and sky;
Darkness vomiting forth blinding darkness,
The Pralaya wind angrily roaring;
In quick bursts of dazzling splendour flashes
Blood-red terrific lightning, dealing death;
Monster waves roaring like thunder, foaming,
Rush impetuous to leap mountain peaks;
The earth booms furious, reels and totters,
Sinks down to its ruin, hurled from its place;
Piercing the ground, stream forth tremendous flames,
Mighty ranges blow up into atoms.
A lovely villa, on a lake of blue--
Festooned with clusters of water-lilies;
The heart-blood of ripe grapes capped with white foam
Whispering softly tells tale of passion;
The melody of the harp floods the ears,
And by its air, time, and harmony rich,
Enhances desire in the breast of man;
What stirring of emotions! How many
Hot sighs of Love! And warm tears coursing down!
The Bimba -red lips of the youthful fair,
The two blue eyes--two oceans of feelings;
The two hands eager to advance--love's cage--
In which the heart, like a bird, lies captive.
The martial music bursts, the trumpets blow,
The ground shakes under the warriors' tread;
The roar of cannon, the rattle of guns,
Volumes of smoke, the gruesome battlefield's
The thundering artillery vomits fire..
In thousand directions; shells burst and strike
Vital parts of the body; elephants..
And horses mounted are blown up in space;
The earth trembles under this infernal dance;
A million heroes mounted on steeds
Charge and capture the enemy's ordnance,
Piercing through the smoke and shower of shells
And rain of bullets; forward goes the flag,
The emblem of victory, of heroism
With the blood, yet hot, streaming down the staff,
Followed by the rifles, drunk with war-spirit;
Lo! the ensign falls, but the flag proceeds
Onwards on the shoulder of another;
Under his feet swell heaps of warriors
Perished in battle; but he falters not.
The flesh hankers for contacts of pleasure,
The senses for enchanting strains of song,
The mind hungers for peals of laughter sweet,
The heart pants to reach realms beyond sorrow;
Say, who cares exchange the soothing moonlight
For the burning rays of the noontide sun?
The wretch whose heart is like the scorching sun,
--Even he fondly loves the balmy moon;
Indeed, all thirst for joy. Breathes there the wretch
Who hugs pain and sorrow to his bosom?
Misery in his cup of happiness,
Deadly venom in his drink of nectar,
Poison in his throat--yet he clings to hope!
Lo! how all are scared by the Terrific,
None seek Elokeshi whose form is Death.
The deadly frightful sword, reeking with blood,
They take from Her hand, and put a lute instead!
Thou dreaded Kali, the All-destroyer,
Thou alone art true; Thy shadow's shadow
Is indeed the pleasant Vanamali.
O Terrible Mother, cut quick the core,
Illusion dispel--the dream of happiness,
Rend asunder the fondness for the flesh.
True, they garland Thee with skulls, but shrink back
In fright and call Thee, "O All-merciful!"
At Thy thunder peal of awful laughter,
At Thy nudeness--for space is thy garment--
Their hearts sink down with terror, but they say,
"It is the demons that the Mother kills!"
They only pretend they wish to see Thee,
But when the time comes, at Thy sight they flee.
Thou art Death! To each and all in the world
Thou distributest the plague and disease
--Vessels of venom filled by Thine own hands.
O thou insane! Thou but cheatest thyself,
Thou dost not turn thy head lest thou behold,
Ay, the form terrible of the Mother.
Thou courtest hardship hoping happiness,
Thou wearest cloak of Bhakti and worship,
With mind full of achieving selfish ends.
The blood from the severed head of a kid
Fills thee with fear--thy heart throbs at the sight-
Verily a coward! Compassionate?
Bless my soul! A strange state of things indeed!
To whom shall I tell the truth?--Who will see?
Free thyself from the mighty attraction--
The maddening wine of love, the charm of sex
Break the harp! Forward, with the ocean's cry!
Drink tears, pledge even life--let the body fall
Awake, O hero! Shake off thy vain dreams,
Death stands at thy head--does fear become thee?
A load of misery, true though it is--
This Becoming --know this to be thy God!
His temple--the Shmashan among corpses
And funeral pyres; unending battle--
That verily is His sacred worship;
Constant defeat--let that not unnerve thee;
Shattered be little self, hope, name, and fame;
Set up a pyre of them and make thy heart..
A burning-ground...
And let Shyama dance there.





मोहक फूल ,मादक मधुगंध , भिन्नातीं मत्त मधुमक्षिकाएं - सर्वत्र ;
 रजत चन्द्र –निर्झर, मधु स्मित , ये जो स्वर्गलोक के वासी ,  
सहज प्रसारित करते धरती के घर-घर पर !  
मलय पवन की कोमलता की मादक सिहरन ,
उड़ा चली संग मन,पूर्व स्मृतियों के वन ,  
मर्मर सरिताएं, निर्झर; आलोड़ित झीलें ,  
आकुल -विकल चक्र में भटकें, श्याम भ्रमर -गण,  
अगणित कमल झूम कर के इठलाते.. फेनिल बहते जल धारे–झरते,
जैसे स्वर - प्रत्यावर्तित कर देती जो गिरी कन्दरा ;  
कूजित खग- कुल, करें प्रसारित गान श्रुति-मधुर ,  
छिपे वृक्ष में, ह्रदय सुनाते उनके, प्रेम शास्त्र के प्रवचन;
प्रात का अरुण, झाँक रहा अम्बर आनन् में,दिव्य चितेरा,  
छू भर देता ज्यूँ अपनी स्वर्णिम कूची से , धरती का पट 
और असीमित रंगों-वर्णों के अनंत गण , छा जाते चहुँ ओर 
वसुंधरा के आँचल पर, -सत्य, यही है कोष मनोहर-वर्ण-स्वरों का
उमड़ाता जो एक उदधि मधुमय भावों का.
गर्जन,घिरते,फट पड़ते से मेह तुमुल का ,  
समर पञ्च तत्त्वों का धरती से अम्बर तक ;  
तम उडेलता,- दृष्टि विदारक घोर अन्धेरा ,  
प्रलयंकारी पवन प्रचंड भर-भर हुंकारें ; रह रह कर चमके.
दमके घनघोर दामिनी रक्तिम, दारुण तड़ित,मृत्यु की ज्यूँ हो दूत ,  
दैत्याकारा लहरें कड़क, कुलिश,फेनिल सी, दौड़ें तत्पर, 
करने अंगीकृत, गिरिश्रिंग; चीत्कार करती धरती,उद्वेलित - डगमग ,
हो जाती ज्यूँ ध्वस्त, देख सब तितर - बितर ; चीर धरा अन्तःस्थल, 
उगले भीषण ज्वाला, धूल धूसरित हो जाते हिमाच्छादित गिरिश्रृंग...  
मनमोहक प्रासाद, किनारे नील जलाशय, खिले कुमुदिनी-दल के पहने ज्यूँ आभूषण ,
पके अंगूरों के अंतस की मादक मदिरा,शुभ्र फेन का ओढें आँचल
कहतीं धीमे स्वर में कितनी प्रेम कथाएं ; वीणा के तारों के स्वर, कानों में झंकृत,
सुरभि,समय,स्वर संगति  का मादक मिश्रण, जागृत करते तीक्ष्ण पिपासा मानव-उर में,  
कोलाहाल कैसा भावों का ! जाने कितने दग्ध प्रेमियों की उच्छवासें ! 
और उफनते,बहते, कितने अश्रुधारें! यौवन से मदमाते बिम्ब सदृश्य दो अधर,  
नयन, भरे दो सागर जैसे हों भावों के; बाहें - जैसे आतुर करने प्रेमाबद्ध,  
विकल पक्षी सा मन बेचारा जाता फंस. युद्ध भेरी सी बजे ,निनादित तुमुल घोष है,  
वीरों के पद तल, डगमग सी कम्पित भूमि , 'तोपें गरजें, खनक रहीं बंदूकों की नालें,  
भीषण धूम्र.लोहित रण प्रांगण, धाँय धायं धधकें युद्ध आयुध,आग उगलतीं दसों दिशाएँ
विस्फोट हर और बींधते , अंतरतम तक देहों को ; 
हाथी घोड़े योद्धाओं के उड़ जाते हो चिंदी चिंदी ;  
धरा कांपती, उग्र ध्वंस से; कोटि सहस्त्र अश्वारोही.. बढ़ें,
छीन अरि आयुध- कोष , चीर धुंआ,बम की बोछारें,  
गोली की बरसात मध्य, बढ़ रही पताका, ध्वजा विजय की,शूर वीर की,
रक्त अभी तक ऊष्ण,बह रहा प्रतिक्षण जिससे, पीछे चलती अगणित बंदूकें,
उन्मत्त, युद्धातुर ; अरे! ध्वजा गिर पड़ी, किन्तु बढ़ती है सेना..  
एक दूसरे के कंधे पर जैसे चढ़ के ; पद तल जैसे दलित हो रहे शूर अनेकों,
मिटें युद्ध में;पर न रुके वे. देह खोजती इन्द्रिय सुख को,  
इन्द्रियां खोजें मोहक प्रेय, मन भूखा उन्मुक्त हास्य का ,  
ह्रदय चाहे रहूं दूर दुख से  ; कौन चाहता छिने चांदनी, बदले में ले, तपती धूप?  
धूर्त व्यक्ति पर को झुलसाए, सूर्य के सदृश्य पर चाहे अपने को, 
पाऊं शीतल राका ; सत्य, सभी प्यासे हैं सुख के. सांस ले रहा धूर्त है वहां  
कौन भला पाले पीड़ा - दुःख ? सुख के प्याले में भरकर दुख,  
अमृतमय पेय में अहि - विष , कंठ में गरल,आशा पोषित !  
अरे! सभी कैसे भय व्याकुल , कोई न चाहे एलोकेशी जो है मृत्यु मय.  
कंपा रही तलवार, टपकता जिससे शोणित, छीन, उसे दे देते कर में, सुन्दर वीणा!  
तू भयंकरी काली,तू सर्व नाशिनी , सत्य यही केवल;तेरी छाया की छाया..  
है इतना सुन्दर लगने वाला वह वनमाली .  
हे भयावह माँ,काट उर के बंधन,त्वर , मिटा मोह भ्रम - सपने सुख के ,  
छिन्न -भिन्न कर, आकर्षण जग के . सत्य सजाते पहले तुझको नरमुंडों से..
पर घबरा, हट जाते पीछे.......... भयाक्रांत होकर हैं कहते ,-" हे करुणामयी ! 
" अट्टहास और भयानक गर्जन तेरा , दिगम्बरी तू -क्यूँ कि आवरण अम्बर तेरा -  
भय से आकुल हो जाते उर,पर हैं कहते , "मातु हन्त्री है दानव गण की !"  
दर्शन तेरा पाने को केवल वे कहते, प्रकट हुयी तू जिस पल, वे भागें फिर सरपट.  
तू मृत्यु है ! सृष्टि के हर एक प्राणी को बाँट रही तू घातक रोग,  
गरल पात्र भरती है तू ही . तू मदमाती!छले स्वयं को,  
मूंह न मोढ़े ,नहीं निहारे, हे भयंकरी रूप, मात्रिके !  
आस में सुख की कष्ट उठाती , धारे भक्ति भाव-परिधान ,  
मन में केवल स्वार्थ सिद्दी है , शिशु के कटे शीर्ष का शोणित ,  
भर देता भय - कांपता ह्रदय.. क्या कायरता ! क्या है करूणा?  
वर दे मुझ को !है विचित्र यह लीला कैसी !  
किसे बताऊँ सत्य भला क्या ? कौन देखता ?  
मुक्त करो अपने को जग के कुटिल राग से.... 
प्रेम की सुरा मादक ,दुर्गम भोग पिपासा . तोड़ो वीणा ! 
रहो अग्रसर,सागर के संग ! पीलो अश्रु ,हारो जीवन-
देह की भी न आसक्ति हो. जागो ,नायक ! 
मिटने दो भ्रामक सपनों को, कितनी पीड़ा!,सत्य यही है -  
यह सब होना - जानो यह ही है ईश्वर ! उसका मंदिर - 
मृतक भूमि भरी लाशों से , और धधकती हुयी चिताएं ;
अविरत समर - सत्य में यही पूजन उसका ; सतत हार हो -
त्यागो न साहस ; क्षुद्र अहम् ,आशा,यश ,नाम बिखरते ;  
उन्हें झोंक दो अग्नि चिता में और ह्रदय ज्यूँ हो शमशान .  
और थिरकने दो श्यामा को अपने उर में...

अर्धनारीश्वर

ardhanarishwasr

On one side grows the hair in long black curls,
And on the other, corded like rope
On one side are seen the beautiful garlands,
On the other, bone earrings and
snake-like coils.
One side is white with ashes, like
the snow mountains,
The other, golden as the light of
dawn.
For He, the Lord, took a form,
And that was a divided form,
Half-woman and half-man."




एक अंग में अलक सुदीर्घा,
दूजी ओर जटा है घोर
एक अंग में स्वर्णिम भूषण ,
दूजी ओर अस्थि -अहि घोर
एक अंग है श्वेत राख से,
जैसे हिम मंडित नग हों ,
दूजा अंग ,हैं ऐसा स्वर्णिम
जैसे दमक रही हो भोर ,
क्यूंकि विभु ने परम ईश ने
दर्शाया है ऐसा रूप ,
जो की व्यक्त है
अर्ध नारी और अर्ध पुरुष मय .

दिव्य माँ के प्रति

A hymn to divinemother



Thou most beautiful! Whose holy hands
Hold pleasure and hold pain! Doer of good!
Who art Thou? The water of existence
By Thee is whirled and tossed in mighty waves.
Is it, O Mother, to restore again
This universe's broken harmony
That Thou, without cessation, art at work?
Oh! May the Mother of the universe--
In whose activity no respite rests,
Incessantly distributing the fruits
Of action done, guiding unceasingly
All action yet to come--bestow Her boon
Of blessing on me, Her child, for evermore.
I realise, I know, that it is Thou
Who holdest in Thy hands dread Karma's rope.
Is it inherent nature? Something uncreate?
Or Destiny? Some unforeseen result?--
Who lacking nothing, is accountable,
Whose chain of will, untrammelled, grasps the laws,
May She, the Primal Guide, my shelter be!
Manifestations of Her glory show
In power of immeasurable might,
Throughout the universe, powers that swell
The sea of birth and death, forces that change
And break up the Unchanged and changed again.
Lo! Where shall we seek refuge, save in Her?
To friend and foe Thy lotus-eyes are even;
Ever Thine animating touch brings fruit
To fortunate and unfortunate alike;
The shade of death and immortality--
Both these, O mother, are Thy grace Supreme!
Mother Supreme! Oh, may Thy gracious face
Never be turned away from me, Thy child!
What Thou art, the Mother? the All. How praise?
My understanding is so little worth.
'Twere like desire to seize with hands of mine
The sole Supporter of the universe!
So, at Thy blessed feet--contemplated
By the Goddess of Fortune Herself--the abode
Of fearlessness, worshipped by service true--
There, at those blessed feet, I take refuge!
She who, since birth, has ever led me on
Through paths of trouble to perfection's goal.
Mother-wise, in Her own sweet playful ways,
She, who has always through my life inspired
My understanding, She, my Mother, She,
The All, is my resort, whether r my work
O'erflow with full fruition or with none.





हे सुन्दरतम ! जिसके पावन हाथ
थामते सारे सुख - दुःख !मंगलदाई !
कौन भला तू?जीवन जल का
तुझ से प्लावित ,पसरा ऊंची लहरों पर.
क्या, माँ,करने पुनः सुनिश्चित
ब्रहमांड की बिखरी लय
तू प्रतिपल है निरत कर्म में ?
आह ! काश जननी सृष्टि की -
जिसके जग में क्रिया अन विरत ,
सदा बांटती रहती है फल
किये कर्म का ,निर्देशन देती है प्रतिपल
सभी कर्म के ,फल जिनके शेष,--देती है वर
मंगल मुझको , अपने शिशु को ,सदा के लिए .
मुझे बोध है ,जानूँ भी कि तू ही है
जिसके हाथों में सबके कर्मों की डोर .
क्या यह निहित प्रकृति है ? या है परे सृष्टि से ?
या फिर दैव?कुछ अनबूझे परिणाम ?-
लेश अभाव नहीं है जिसको,उत्तरदायी ,
जिसकी इच्छा ,सदा अबाधित ,करे सुदृढ़ सृष्टि सञ्चालन ,
काश वही ,आद्या नेत्री ,मेरी गति हो !
जिसकी महिमा की अभिव्यक्ति

शक्ति जो अपरिमित, में निहित,
निखिल सृष्टि में ,शक्ति प्रसारे
जन्म -मरण का भव- सिन्धु ,शक्ति बदले
भंग करे वे ,जो न बदले,और फिर बदले .
हाय ! कहाँ है आश्रय दूजा ,उसके बदले ?
मित्र -शत्रु, सम तुझे पद्माक्षिनी ;
जीवन दाई तेरी दृष्टि है फलदायी
एक सदा सी, भाग्यवान - दुर्भाग्य ग्रसित को ;
छाया मृत्यु और जीवन की -
दोनों हे माँ ! तेरी करुणा परम कृपामयी !
परम शक्ति !हे ,स्नेह  दृष्टि यह
छिने   मुझ से , तेरे शिशु से !
तू क्या है, माँ ? सर्वमयी.कैसे गाऊं?
गान तेरा, मैं जानूँ ही क्या ?
इच्छा थी हाथों में थामूं
निखिल सृष्टि की धारित्री को !
अतः , चरण कमलों को ध्याता
शरणागत मंगलदाई के -आश्रय है
जो निर्भयता की ,पूजित सत्यनिष्ठ सेवा से -
अब तेरे पावन चरणों में , मेरी गति है !
जिसने राह दिखाई मुझको सदा जन्म से ,
कंटकमय पथ से होकर के पूर्णत्व की .
विज्ञ -मातु ,ने अपने ढंग से खेल खिलाकर ,
उसने प्रतिपल आजीवन स्फूर्ति सदा दी
मेरी धारणा ,वह मेरी माँ ,वह
सर्वमयी ,मेरी गति है ,चाहे कर्म के
 .फल  दे मधुमय या कुछ भी ना .

हे शिव तुम्हे प्रणाम

Salutation to Shiva! whose glory
Is immeasurable, who resembles sky
In clearness, to whom are attributed
The phenomena of all creation,
The preservation and dissolution,
Of the universe! May the devotion,
The burning devotion of this my life,
Attach itself to Him, to Shiva, who,
While being Lord of all, transcends Himself.
In whom Lordship is ever established,
Who causes annihilation of delusion,
Whose most surpassing love, made manifest,
Has crowned Him with a name above all names,
The name of "Mahadeva", the Great God!
Whose warm embrace, of Love personified,
Displays, within man's heart, that all power,
Is but a semblance and a passing show.
In which the tempest of the whole past blows,
Past Samskaras, stirring the energies
With violence, like water lashed to waves;
In which the dual consciousness of "I" and "Thou"
Plays on: I salute that mind unstable,
Centred in Shiva, the abode of calm!
Where the ideas of parent and produced,
Purified thoughts and endless varied forms,
Merge in the Real one; where the existence ends
Of such conceptions as "within", "without"--
The wind of modification being stilled--
That Hara I worship, the suppression,
Of movements of the mind. Shiva I hail!
From whom all gloom and darkness have dispersed;
That radiant Light, white, beautiful,
As bloom of lotus white is beautiful;
Whose laughter loud sheds knowledge luminous;
Who, by undivided meditation,
Is realised in the self-controlled heart:
May that Lordly Swan of the limpid lake,
Of my mind, guard me, prostrate before Him!
Him, the Master-remover of evil,
Who wipes the dark stain of this Iron Age;
Whom Daksha's Daughter gave Her coveted hand;
Who, like the charming water-lily white,
Is beautiful; who is ready ever,
To part with life for others' good, whose gaze,
Is on the humble fixed; whose neck is blue,
With the poison swallowed:
Him, we salute!








नमन तुम्हे शिव ! जिसकी महिमा
अपरम्पार , अम्बर सा जो
पारदर्शी है , गुण सब जिस में
सृष्टि सृजन के ,
पालन और भंग करने के
विश्व अनेकों ! काश भक्ति ,
तीव्र भक्ति मेरे जीवन की
मिल जाए उस से, उस शिव से ,
स्वामी सबका हो कर भी जो, परे स्वयं से .
जो शाश्वत स्वामी है सबका ,
जो सारे भ्रम का है हर्ता,
जिसका सबसे उत्कृष्ट प्रेम, प्रकट है,
सब नामों में बढकर नाम .
"महादेव, " जो सबका धाम !
पावन आलिंगन में जिसके प्रेम बरसता ,
दर्शाता अपने अंतर में , कि शक्ति ये
क्षीण मात्र और परिवर्तनीय .
निहित जहाँ अंधड़ अतीत के ,
संस्कार उद्वेलित शक्ति
तीव्र ,जल जैसे उमढाता लहरें;
जिसमे 'मैं' 'तू' द्वन्द उपजता
बढ़ता ,पलता ; उसे है नमन ,
शिव में स्थित ,शांति प्रगाढ़ !
जहाँ बोध जनक - जन्यों का ,
शुचि विचार ,असीमित रूप ,
समाहित होते सत्य में ;मिट जाता
बोध अन्तः - बाह्य का -
प्राण वायु हो जाती शांत -
पूजूँ मैं उस 'हर' को,हरता जो
मन की गतिविधियाँ .शिव का स्वागत !
हर क्लेश और तम का नाशक ,
अभ्रक ज्योति, श्वेत ,व सुन्दर
श्वेत कमल के खिलने जैसा ,
अट्टहास से ज्ञान बिखेरे ;
जो निरत रहे आत्मध्यान में ,
दर्शन देता ह्रदय कमल में ,
राजहंस जो शांत झील का
मेरे मन की , रक्षक मेरा ,नमन है उसे !
वह जो पूर्ण अमंगल हर्त्ता ,
निष्कलंक करता युग युग को ;
दक्ष सुता ने दिया जिसे कर ;
जो है श्वेत कमलिनी सा मधु ,
सुन्दर ; सदा रहे तत्पर जो
प्राण त्यागने परहित प्रतिपल ,दृष्टि
निहित दुर्बल दरिद्र पर ;कंठ नील है
विष धारण से ;
उसे है नमन !

i feel like sharing a divine experience with my divine friends. few months back i dreamt lord shiv lying on earth with a pink transparent body radiating pink bright light and mother parvati seated in his heart as a tiny doll in padmasan. then i saw him flying high in the sky with a blue transparent body carrying tiny mother parvati seated in lotus posture inhis heart. i could not follow the meaning of this dream. barely one week after this i decided to translate poems of swami vivekanand. when i set to translate his poem titled namah shivaaye and imagined the words i was agape as this poem exactly depicts lord shiv as transparent sky carrying sports of shakti within him.i was stunned. is every action of ours preplanned by divine?



namah shivaaye. the poem is in my notes and can be read as--namah shivaaye with its hindi translatin.



om namah shivaaye

रहो सुद्रढ़ हे ह्रदय वीर

brave heart



If the sun by the cloud is hidden a bit,
If the welkin shows but gloom,
Still hold on yet a while, brave heart,
The victory is sure to come.
No winter was but summer came behind,
Each hollow crests the wave,
They push each other in light and shade;
Be steady then and brave.
The duties of life are sore indeed,
And its pleasures fleeting, vain,
The goal so shadowy seems and dim,
Yet plod on through the dark, brave heart,
With all thy might and main.
Not a work will be lost, no struggle vain,
Though hopes be blighted, powers gone;
Of thy loins shall come the heirs to all,
Then hold on yet a while, brave soul,
No good is e'er undone.
Though the good and the wise in life are few,
Yet theirs are the reins to lead,
The masses know but late the worth;
Heed none and gently guide.
With thee are those who see afar,
With thee is the Lord of might,
All blessings pour on thee, great soul,
To thee may all come right!





बादल जब छाये सूरज पर ,
अम्बर भी बरसाए पीर ,
रहो अपितु दृढ , ह्रदय वीर,
विजय तुम्हारी है निश्चित .
बाद शरद के आता ग्रीष्म ,
हवा सदा ही लहर बनाती ,





बढ़ते आगे धूप -छाओं से ;
सतत बढ़ो फिर आगे वीर !
जीवन -कर्म जटिल निश्चित ही ,
और यहाँ के सुख भ्रम मात्र ,
मंजिल लगती दूर ,धुंधली सी ,
बढ़ो, चीर तम , ह्रदय वीर .
अपनी पूरी शक्ति सहित .
लेश कर्म भी न खोएगा ,न संघर्ष ,
आशाएं धूमिल हो चाहें शक्ति जाए ;
जन्मेंगे तुम से भविष्य के कर्ता धर्ता ,
रहो अतः फिर दृढ , ह्रदय वीर,
मंगल कर्म न जाते व्यर्थ .
भद्र और बुद्ध यद्यपि कम ,
वे ही पर बनते अधिनायक ,
जन साधारण देर से समझे ;
भ्रष्ट न हो और बढ़ते जाओ .
संग तुम्हारे सिद्ध अनेकों ,
संग तुम्हारे शक्ति मान ,
धन्य -मान तुम,महा आत्म हो ,
तुम्हे मिलें सारे आशीष !

चल दें वापस

LET US GO BACK




Let us go back once more, O mind, to our proper home
Here in this foreign land of earth,
Why should we wander aimlessly in stranger's guise?
These living beings round about,
And the five elements,
Are strangers to you, all of them; none are your own.
Why do you so forget yourself,
In love with strangers, foolish mind?
Why do you so forget your own?
Mount the path of truth, O mind! unflaggingly climb,
With love as the lamp of lightyour way.
As your provisionon the journey, take with you
The virtues, hidden carefully;
For, like two highwaymen,
Greed and delusion wait to rob you of your wealth.
And keep besides you constantly,
As guards to shelter you from harm,
Clamness of mind and self-control.
Companionship with holy men will be for you,
A wellcome rest-house by the road;
There rest your weary limbs awhile, askingyour way,
If ever you should be in doubt,
Of him who watches there.
If anything along the path should cause you fear,
Then loudly shout the name of God;
For He is ruler of that road,
And even Death must bow to him.










चलते हैं एक बार वहीं, मन ! अपने असली घर की ओर..

यहाँ विदेशी भूमि धरा की..

क्यूँ यायावर से हम भटकें ?

ये सारे सृष्टि के जीव ,

और पांच तत्त्वों के भूत ,

हैं अनजाने ,ये न हमारे .

क्यूँ तू इनमे भूले खुद को ,

प्रेम करे अनजानों से, मूढ़ रे मन ?

क्यूँ आखिर भूले अपनों को ?

बढ सत-पथ पर ,मन !चढ़ बढ़ता जा ,

प्रेम सहित ज्योतिर्मय पथ पर .

पथ के साधन साथ उठा ले ,

सारे सद्गुण , सहज सम्हाले ;

दो दस्यु हैं महामार्ग पर ,

लोभ ,मोह तुझे चाहें लूट .

सतत संग रख तू अपने ,

ये प्रहरी अपनी रक्षा में ,

मन की शान्ति और नियंत्रण .

पावन संतों का संग कर ,

पथ के विश्रामालय जो ;

रुक ,सुस्ता ,उनसे ले दिशा,

जब भी दुविधा तुझ को घेरे ,

बारे में उसके, जो रहा देख .

डर यदि लगे मार्गे पर तुझ को ,

जोर से गा तू प्रभु के नाम ;

वह है स्वामी पथ का तेरे ,

मृत्यु भी करे उसे प्रणाम .



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मुक्तात्मा का गीत

The Song Of The Free



The wounded snake its hood unfurls,
The flame stirred up doth blaze,
The desert air resounds the calls
Of heart-struck lion's rage.
The cloud puts forth it deluge strength
When lightning cleaves its breast,
When the soul is stirred to its in most depth
Great ones unfold their best.
Let eyes grow dim and heart grow faint,
And friendship fail and love betray,
Let Fate its hundred horrors send,
And clotted darkness block the way.
All nature wear one angry frown,
To crush you out - still know, my soul,
You are Divine. March on and on,
Nor right nor left but to the goal.
Nor angel I, nor man, nor brute,
Nor body, mind, nor he nor she,
The books do stop in wonder mute
To tell my nature; I am He.
Before the sun, the moon, the earth,
Before the stars or comets free,
Before e'en time has had its birth,
I was, I am, and I will be.
The beauteous earth, the glorious sun,
The calm sweet moon, the spangled sky,
Causation's law do make them run;
They live in bonds, in bonds they die.
And mind its mantle dreamy net
Cast o'er them all and holds them fast.
In warp and woof of thought are set,
Earth, hells, and heavens, or worst or best.
Know these are but the outer crust -
All space and time, all effect, cause.
I am beyond all sense, all thoughts,
The witness of the universe.
Not two nor many, 'tis but one,
And thus in me all me's I have;
I cannot hate, I cannot shun
Myself from me, I can but love.
From dreams awake, from bonds be free,
Be not afraid. This mystery,
My shadow, cannot frighten me,
Know once for all that I am He.





आहत नाग उठाता फ़न,
दहकती लपटें अग्नि की ,
मरुस्थली अंधड़ में गूँजती पुकार
मर्माहत केसरी का रौष.
दिखलाता मेह अपना जलवा
जब दमकती बिजली सीने में ,
होती जब आत्मा आंदोलित अंतरतम तक
खिलते तेजस्वी पूर्ण प्रखर .
दृष्टि धूमिल हो चाहे और बोझिल उर ,
मैत्री दे आघात,प्रेमीजन जाएँ छल ,
भेजे दैव सैंकड़ों क्लेश ,
गहन अँधेरा पथ पर छाये .
सृष्टि देखे क्रूर दृष्टि से
तुम्हे कुचलने को तोभी मेरे 'स्व '
तुम हो दिव्य .बढ़ो आगे ही ..
दायें न बाएं केवल गंतव्य की तरफ .
देवदूत न ,न मानव ,न पशु आदिम ,
न शरीर ,मन, न नारी- नर ,
पुस्तक विस्मित मूक रह गयीं
वर्णन करने 'मैं ' हूँ कौन ?मैं हूँ ‘वह’ .
सूर्य ,चन्द्र ,धरती से पहले ,
तारे ,पुच्छल - तारों से पूर्व ,
समय तक नहीं जन्मा था जब ,
मैं था मैं हूँ और रहूंगा ..
सुन्दर धरती ,स्वर्णिम सूर्य ,
मधुर शांत शशि ,झिलमिल अम्बर ,
सृष्टि नैमित्तिक नियम आधारित ;
बाधित जीवित ,बाधित अंत .
और मन सतरंगी सपने बुनता
छाया सब पर ,पकड़ जटिल .
मन के ताने बानों में ही ,
धरती ,नरक, स्वर्ग , निकृष्ट ,उत्तम .
जानो ये सब सतही भ्रम भर ,
अम्बर ,अवधि, कारण ,अंत .
’मैं’ परे अनुभूति से,विचार से ,
दृष्टा केवल सृष्टि का .
न द्वि, न बहु ,केवल एक ,
 मुझ   में सब ,सब में हूँ मैं ;
घृणा कर सकूँ ,न ही रोध ,
स्व से सर्वमय ,हूँ केवल प्रेम .
जागृत भ्रम से,मुक्त बंध से ,
भय न कर, .यह रहस्य ,
छाया मेरी डरा सके न ,
जानो शाश्वत मैं हूँ वह!

मेरी भूमिका पूरी हो ली

My Play Is Done


Ever rising, ever falling with the waves of time, still rolling on I go
From fleeting scene to scene ephemeral, with life's currents' ebb and flow.
Oh! I am sick of this unending force; these shows they please no more,
This ever running, never reaching, nor e'en a distant glimpse of shore!
From life to life I'm waiting at the gates, alas, they open not.
Dim are my eyes with vain attempt to catch one ray long sought.
On little life's high, narrow bridge I stand and see below
The struggling, crying, laughing throng. For what? No one can know.
In front yon gates stand frowning dark, and say: `No farther away,
This is the limit; tempt not Fate, bear it as best you may;
Go, mix with them and drink this cup and be as mad as they.
Who dares to know but comes to grief; stop then, and with them stay.'
Alas for me, I cannot rest. This floating bubble, earth--
Its hollow form, its hollow name, its hollow death and birth--
For me is nothing. How i long to get beyond the crust
Of name and form! Ah, open the gates; to me they open must.
Open the gates of light, O Mother, to me Thy tired son.
I long, oh, long to return home! Mother, my play is done.
You sent me out in the dark to play and wore a frightful mask;
Then hope departed, terror came, and play became a task.
Tossed to and fro, from wave to wave in this seething, surging sea
Of passions strong and sorrows deep, grief is, and joy to be.
Where life is living death, alas! and death-- who knows but `tis
Another start, another round of this old wheel of grief and bliss?
Where children dream bright, golden dreams, too soon to find them dust,
And aye look back to hope long lost and life a mass of rust!
Too late, the knowledge age doth gain; scare from the wheel we're gone.
When fresh, young lives put their strength to the wheel, which thus goes on
From day to day and year to year. 'Tis but delusion's toy,
False hope its motor; desire,nave;its spokes are grief and joy.
I go adrift and know not whither. Save from this fire!
Rescue me, merciful Mother, from floating with desire!
Turn not to me Thy awful face, 'tis more than I can bear,
Be merciful and kind to me, to chide my faults forbear.
Take me, O Mother, to those shores where strifes for ever cease;
Beyond all sorrows, beyond tears, beyond e'en earthly bliss;
Whose glory neither sun, nor moon, nor stars that twinkle bright,
Nor flash of lightning can express. They but reflect its light.
Let never more delusive dreams veil off Thy face from me.
My play is done; O Mother, break my chains and make me free!







सतत उठते -गिरते समय की लहरों पर, बढ़ता अब भी जाता मैं ...
क्षणिक दृश्य से ,दृश्य क्षण -भंगुर ,जीवन -नदी की धार ,भंवर ,
ऊब चुका हूँ हाय शक्ति के सतत खेल से ,भाते अब न और ये रंग .
सतत प्रवाहित गंतव्य हीन , दूर तलक न झलके कूल !
जनम जनम से द्वार पे खडा ,आह नहीं खुलते पर द्वार .
दृष्टि धूमिल हुयी चाह में ,चिरप्रतीक्षित एक रश्मि की .
क्षुद्र जीवन के शिखर के, संकीर्ण सेतु पर खडा , झाँकू नीचे -
संघर्ष रत,दुखी कभी सुखी जग . किस हेतु? न जाने कोई ..
द्वारे सम्मुख कुटिल अन्धेरा जैसे कहता –‘आगे मत जा .
सीमा है यह ,भाग्य न बदले,सह ले जैसे भी हो सब ;
जा ,मिल इनसे ,पी तूभी जो हैं वे पीते, हो जा पागल जैसे वे .
जो साहस कर पूछे, पाए दुःख ,रुको रहो उनके ही संग’ .
आह नहीं विश्राम मुझे पर . धरा लगे ज्यूँ कोई बुलबुला .
रूप निरर्थक ,नाम निरर्थक, मृत्य निरर्थक और जनम भी ..
नहीं कहीं है मेरा कुछ .केवल इच्छा जाऊं पार ..
नाम रूप के ..आह खोल दे द्वार ;अब तो मेरे लिए अवश्य .
द्वार ज्योति के ,ओ माँ तेरे थके पुत्र के लिए ..
आना चाहूँ घर मैं वापस , माँ मेरी भूमिका पूरी हो ली .
तूने भेजा अन्धकार में ,धारण कर आतंकित रूप.
आस खो चुकी . भय ने घेरा ,सौंपी भूमिका जग की .
कभी इधर तो कभी उधर ,सागर लहरों पर झूल रहा ..
प्रचंड आवेश -कष्ट करुण ,दुःख -सुख के आवेग ;
जीवन हो जैसे कि मृत्यु ,आह !मृत्यु क्या, ..जाने कौन ?
नयी सुबह ,फिर नया चक्र एक, सुख का दुःख का ,
शैशव के सतरंगी सपने ,मिल जाते क्रमशः माटी में ..
देखो पीछे - आशा धूमिल और जीवन ,ज्यूँ 'क्षर का ढेर .
देर से सही उम्र दे सबक , भयाक्रांत जब खोजो अतीत ,
नव जीवन में शक्ति लगाई ,चला ,बढ़ा जीवन का चक्र .
दिन -दिन ,वर्ष दर वर्ष, आगे , कैसा मृग तृष्णा का खेल ,
झूठी आशा इसका मोटर,इच्छा, तृष्णा ,सुख -दुःख पैय्ये की तीलें.
भटक रहा मैं, जानू न कुछ ! कोई बचाए इस ज्वाला से !
रक्षा कर माँ दयामयी ,लिप्सा की इस मृग तृष्णा से .
न हो विकृत ,सह ना पाऊँ तेरा ऐसा विकृत रूप .
करूणा कर न !और दया कर,क्षमा करा सारी भूलें ,
ले चल हे माँ! उस तट पर तू, जहां मिटे शाश्वत ,संघर्ष .
कष्ट ,अश्रुओं, और धरा के सारे लौकिक सुख से दूर .
गौरव जिसका सूर्य ,चन्द्र न तारे जो चमकें झिलमिल ..
ना चमक दामिनी की कह पाए , झलकाते सब जिसका तेज .
कभी छिपे न तेरा चेहरा भ्रामक तृष्णा के परदे में ,
मेरी   भूमिका पूरी हो ली ,हे माँ काट बंध और मुक्ति दे !

ईश्वर की खोज

Quest For God



O'ver hill and dale and mountain range,

In temple, church, and mosque,

In Vedas, Bible, Al Koran

I had searched for Thee in vain.

Like a child in the wildest forest lost

I have cried and cried alone,

"Where art Thou gone, my God, my love?

The echo answered, "gone."

And days and nights and years then passed

A fire was in the brain,

I knew not when day changed in night

The heart seemed rent in twain.

I laid me down on Ganges's shore,

Exposed to sun and rain;

With burning tears I laid the dust

And wailed with waters' roar.

I called on all the holy names,

Of every clime and creed.

"Show me the way, in mercy, ye

Great ones who have reached the goal."

Years then passed in bitter cry,

Each moment seemed an age,

Till one day midst my cries and groans
Some one seemed calling me.

A gentle soft and soothing voice

That said 'my son' 'my son',

That seemed to thrill in unison

With all the chords of my soul.

I stood on my feet and tried to find

The place the voice came from;

I searched and searched and turned to see

Round me, before, behind,

Again, again it seemed to speak

The voice divine to me.

In rapture all my soul was hushed,

Entranced, enthralled in bliss.

A flash illumined all my soul;

The heart of my heart opened wide.

O joy, O bliss, what do I find!

My love, my love you are here,

And you are here, my love, my all!

And I was searching thee -

From all eternity you were there

Enthroned in majesty!
From that day forth, wherever I roam,
I feel Him standing by
O'ver hill and dale, high mount and vale,
Far far away and high.
The moon's soft light, the stars so bright,
The glorious orb of day,
He shines in them; His beauty - might -
Reflected lights are they.
The majestic morn, the melting eve,
The boundless billowing sea,
In nature's beauty, songs of birds,
I see through them - it is He.
When dire calamity seizes me,
The heart seems weak and faint,
All nature seems to crush me down,
With laws that never bend.
Meseems I hear Thee whispering sweet
My love, "I am near", "I am near".
My heart gets strong. With thee, my love,
A thousand deaths no fear.
Thou speakest in the mother's lay
Thou shuts the babies eye,
When innocent children laugh and play,
I see Thee standing by.
When holy friendship shakes the hand,
He stands between them too;
He pours the nectar in mother's kiss
And the baby's sweet "mama".
Thou wert my God with prophets old,
All creeds do come from Thee,
The Vedas, Bible, and Koran bold
Sing Thee in Harmony.
"Thou art," Thou art" the Soul of souls
In the rushing stream of life.
"Om tat sat om." Thou art my God,
My love, I am thine, I am thine.






पहाड़ों ,घाटियों और पर्वत शिखरों पर ,
मंदिर ,गिरिजाघर और मस्जिद में ,
वेदों में ,बाईबिल में ,कुरआन में
खोजा मैंने तुमको व्यर्थ .
शिशु सा दुर्गम जंगल में भटकता ,
रोया सिसका अकेला मैं .
"कहाँ हो तुम मेरे प्रभु , प्रेम मेरे ?
प्रतिध्वनी बोली -"चला गया. "
फिर दिन और रात, वर्षों बीते ,
मस्तिष्क में व्याप्त एक ज्वाला,
न जान सका कि कब दिन बदले रात में ,
ह्रदय था जैसे आबद्ध द्वंदों में .
मैंने पसार दिया स्वयं को गंगा-तट पर ,
पडा धूप और वर्षां में स्वछंद ;
उफनते अश्रुओं से जमाई धूल ,
बिलख जल की लहरों के साथ .
जपे सारे पवित्र नाम
हर देश और धर्म के .
"राह दिखाओ, दया कर, हे !
महात्माओं जो पा चुके  गंतव्य."
वर्षों बीते यूं रोते रोते ,
प्रति पल जैसे हो एक युग ,
एक दिन रोते बिलखते में ,
लगा कि कोई रहा था बुला .
एक कोमल और मधुर स्वर 
जिसने कहा 'मेरे शिशु' 'मेरे शिशु ',
जैसे झंकृत थे दिग दिगंत
मेरी आत्मा के अंग - अंग .
मैं हुआ खड़ा और ढूँढ़ रहा 
वह दिशा जहां से आया स्वर;
खोजा.. खोजा ..और मुढ़ा,
परितः ,आगे फिर पीछे ..
बार बार जैसे कहता था
दिव्य स्वर मुझ से कुछ .
आनंदित आत्मा थी निःशब्द ,
मुग्ध,मधुर आनंद मग्न .
एक ज्योति जगी अंतर में ;
खिलता जैसे
पुनः पुनः उर ह्रदय .
अहा हर्ष,कैसा आनंद ,क्या मिला मुझे !
मेरे प्रिय! ,मेरे प्रिय ! तुम हो यह!
तुम हो यह मेरे प्रिय मेरे सर्वस्व !
खोज रहा था तुमको मैं -
तुम तो थे अनंत काल ही से
अपनी ऐश्वर्यमयी सत्ता में!
उस दिन से ही, मैं गया जहां,
पाया वह था ज्यूँ साथ सदा
पर्वत पर ,घाटी में, शिखरों पर,वादी में
दूर दूर तक ..और ऊंचे पर .
चन्द्रमा की मधुर ज्योति ,झिलमिलाते तारे,
दिवस का प्रखर प्रकाश ,
वह तेज निहित इनमे ;उसकी सुन्दरता -शक्ति -
सबमे उसका दिव्य प्रकाश .
प्रभात का वैभव ,द्रवित होती सांझ ,
असीम उमड़ता सागर ,
प्रकृति के सौन्दर्य में ,पक्षियों के कलरव में ,
मैं देख रहा सब में यह ही है वह.
जब दारुण संकट छाते है,
मन होता है दुर्बल, विक्षिप्त ,
सारी सृष्टि लगती बोझिल ,
सिद्धांत जटिल जो अपरिवर्तनीय .
लगता है मैं सुनता हूँ प्रस्फुटन मधुर
मेरे प्रिय ,"मैं हूँ पास ",मैं हूँ पास ".



मेरा उर पाए पुष्टि.तुम संग मेरे प्रिय ,
हों मृत्यु हज़ारों ,भय नहीं .
माँ की लोरी में हो तुम ,
तुम देते शिशु को नींद ,
जब भोले शिशु हंस कर खेले ,
मैं पाऊं तुमको साथ .
जब पावन हाथ थाम लेते  है ,
वह होता है मध्यस्थ ;
वह भरता है अमृत माँ के चुम्बन में
और शिशु की मधुर दुलारती माता में.
तुम थे मेरे प्रभु संग दूतों के ,
सब धर्म उगे हैं तुम से ही ,
वेद बाईबिल और कुरआन
समवेत स्वरों में करते तेरा गान .
"तुम हो ","तुम हो " आत्मा सब की
जीवन की बहती नदिया में .
"ॐ  तत्सत ॐ " तुम हो मेरे प्रभु ,
 मेरे  प्रिय ,में तेरा हूँ ,में तेरा हूँ

आशीर्वाद






A Blessing



The Mother's heart, the hero's will,

The softest flowers' sweetest feel;

The charm and force that ever sway

The altar-fire's flaming play;

The strength that leads, in love obeys;

Far-reaching dreams, and patient ways,

Eternal faith in Self, in all,

The light Divine in great, in small;

All these and more than I could see,

Today may "Mother" grant to thee





माँ का उर ,नायक का संकल्प ,
कोमलतम पुष्प का मधुरतम स्पर्श,
आकर्षण और शक्ति जो करते निरस्त ,
यग्य की वेदी की लपटों का खेल ;
नेतृत्व शक्ति ,प्रेम में आबद्ध ;
दूर दीखते स्वप्न,धैर्य पूर्ण मग ,
असीम विशवास आत्मा में ,सर्वत्र ,
दिव्य ज्योति निहित महत में ,क्षुद्र में ;
ये सब और मेरी दृष्टि से परे का भी ..
आज पायें आप वह सब माँ से !







Light


I look behind and after

And find that all is right,

In my deepest sorrows,

There is a soul of light.

ज्योति



मैं देखता हूँ पीछे और पश्चात ,

और पाता हूँ सब है ठीक ,

मेरे गहनतम विषाद में ,

निहित है आत्मा की ज्योति.